Saturday, August 15, 2015

बचपन

A short poem on Child Labour

किसी सुबह एक दुकान को बसते देखा
मैंने किसीका बचपन उजड़ते देखा

क्यां गुनाह था खुदा के उन फरिश्तों का
नहीं उनको कभी हसते-चहकते देखा

नादाँ हैं वो बच्चे के नादाँ हैं उनका वालिद
के शौक़ से उनके बचपन को मरते देखा

उस दिन से आज तक ख़ौफ़ में हैं "कलाम "
के ग़म का साया बच्चों पे से गुजरते देखा

.... मैंने किसीका बचपन उजड़ते देखा 

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